ईशावास्योपनिषद, उपनिषद का पहला उपनिषद है। इसे “इशोपनिषद” के नाम से भी जाना जाता है। यह उपनिषद शुक्ल यजुर्वेद के 40 वें अध्याय से लिया गया है।
इस उपनिषद में कुल 18 मंत्र है। पहला मंत्र “इशावस्यम” से शुरू होने की वजह से इसका नाम ईशावास्योपनिषद पड़ा।
महात्मा गांधी ने कहा था कि यदि हिंदू ग्रंथ के सभी ग्रंथ नष्ट हो जाएं, परंतु केवल इस उपनिषद का पहला मंत्र बच जाए तो भी हिंदू धर्म बचा रहेगा।
आगे उपनिषद में कहा गया है कि आपको कर्म करते हुए 100 वर्ष तक जीने की इच्छा रखनी चाहिए और कर्म को करते वक्त हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि आप निष्काम भाव से कर्म करें। आपके कर्मों में राग, द्वेष या आसक्ति नहीं आनी चाहिए यदि आप आसक्ती रखकर कर्म करते हैं तो इस उपनिषद में उस व्यक्ति को “असुर” कहा है अर्थात जो बार-बार नाना प्रकार की योनियों में भटकता रहेगा।
इस उपनिषद में आप के 100 वर्षों के जीवन को 4 श्रेणियों में बांटा है
1 से 25 वर्ष – ब्रह्मचर्य आश्रम
25 से 50 वर्ष – ग्रहस्त आश्रम
50 से 75 वर्ष – वानप्रस्थ आश्रम
75 से 100 वर्ष – संयास आश्रम
इस उपनिषद में आगे विद्या और अविद्या के बारे में कहा गया है। विद्या का अर्थ है आध्यात्मिक ज्ञान और अविद्या अर्थात भौतिक ज्ञान।
मंत्रों में आगे कहा गया है कि यदि आप केवल अविद्या को अपनाएंगे तो आप अंधकार में चले जाएंगे परंतु यदि आप केवल विद्या को अपनाएंगे तो आप और गहरे अंधकार में चले जाएंगे।
हम सभी को विद्या और अविद्या दोनों का ज्ञान होना बहुत जरूरी है। केवल विद्या या केवल अविद्या का ज्ञान होना, हमारा अंधकार में जाना ही है। जो व्यक्ति इन दोनों को साथ में जान लेता है वह अविद्या से मृत्यु को पार कर तथा विद्या के अनुष्ठान से अमृत को भोगता है।
उपनिषद में आगे ब्रह्म भाव का ज्ञान मिलता है जहां पर ईश्वर के गुणों को बताया है इसमें कहा है कि ईश्वर की कोई आकृति नहीं होती ईश्वर मोक्ष रहित होते हैं, वह सर्वोच्च है, वह गुरुओं के गुरु हैं।
वह परम तेजोमय हैं, उनका कोई शरीर नहीं है, वह छिद्र-रहित है, नस नाड़ी रहित है, वह सभी को देखते हैं, सब कुछ जानने वाले भी वही है, हम सब पर नियंत्रण रखने वाले भी वही हैं और स्वयं की इच्छा से प्रकट होने वाले भी वही हैं।
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